Tuesday, August 16, 2016

पथ

पथ चलती जाऊँ जीवन पथ पर, आॅखों में एक लिए सवाल
क्या सम्पूर्ण  जगत है सारा, मन में रहता  यही  खयाल
कुछ  चलती  कुछ  ठहर  गई हूँ , अविरल मन व्याकुल परिणाम
जीवन और पथ साथ है दोनों,  फिर कैसे  मै करूँ विश्राम
ज्यों -ज्यों पग आगे बढते है, पीछे छूट रहा संसार
हर पग पर रोड़ा बनकर के, अटक रहे हैं  कई सवाल
विशद ख्वालों के संग चलती रही, ढूढ रही कुछ अजीब सवाल
 जीवन वामपंथी रहा क्योंकि मेरे, जब व्यथ॔ किया न कोई काम
कहने को रुकता हर राही, पर न रुका कभी संसार
चलना है चलते ही रहेंगे, मनोज में लेकर अविराम सवाल

                                    -'नीरू श्रीवास्तव '

सूखता जलस्तर

सूख रहा है जल स्तर मानव तेरे आडम्वर से,
तरस रही है प्यासी धरती जीव भरे कोलाहल से !!
 कुम्हलाई व्याकुल कुमुदनी मीन बिना मछुआरे है
सूखने लगी मन की वेदना ऑखों पर सूखे वादल है !!
प्रकृति को बना गुलाम किया खुद हमने अपना ही दोहन,
उपयोगिता की दौड़ में हम जल का जीवन ही हारे है !!
शोध किए धरती पर पहले खोखले दरख्त बना डाले,
पेङ हुए कंकाल तन्त्र से प्रकृति कुरूप पनिहारी सी!
भौतिकवाद में पड़कर हमने पृथ्व का ये हाल किया,
अभी तो धरती तड़प रही अब मानव तेरी बारी है !!
जल हीजीवन का संवल है इस सोच को अब साकार करो,
वृक्षारोपड़ करके अब तुम नवभारत का निमाण करो !!

-नीरू श्रीवास्तव 9a/8 विजय नगर कानपुर (यू.पी.) 

Wednesday, August 10, 2016

मैं डरती तो हूँ पर पुरूष रूपी आडम्बरों से नहीं--!!

मैं स्त्री तो हूँ
पर अस्तित्व विहीन नहीं,

हर रूढ़ कदम
मुझमें लाता है गौड़ आत्मविस्वास,
हर छलावा मुझे लगता है
अनाड़ियों का मकड़जाल,
मैं डरती तो हूँ
पर पुरूष रूपी आडम्बरों से नहीं--!!

उगते सूरज से ढलने तक
हर पथरीली राह में पाँव छिलने तक,
अपने पथ से विमुख होकर
रिस्तों की तहरीर पर,
मैं चली तो हूँ उम्र भर
पर मंज़िल के लिए नहीं--!!

प्रेम के सच को हाट में
शब्दों से तौल कर
अरमानों की बेदी पर पवित्रता को खरा उतार कर,
मैं चढ़ी तो हूँ उस प्रेमवेदी पर
पर अपना स्त्रीत्व बेचकर नहीं--!!

-नीरू श्रीवास्तव