Wednesday, August 10, 2016

मैं डरती तो हूँ पर पुरूष रूपी आडम्बरों से नहीं--!!

मैं स्त्री तो हूँ
पर अस्तित्व विहीन नहीं,

हर रूढ़ कदम
मुझमें लाता है गौड़ आत्मविस्वास,
हर छलावा मुझे लगता है
अनाड़ियों का मकड़जाल,
मैं डरती तो हूँ
पर पुरूष रूपी आडम्बरों से नहीं--!!

उगते सूरज से ढलने तक
हर पथरीली राह में पाँव छिलने तक,
अपने पथ से विमुख होकर
रिस्तों की तहरीर पर,
मैं चली तो हूँ उम्र भर
पर मंज़िल के लिए नहीं--!!

प्रेम के सच को हाट में
शब्दों से तौल कर
अरमानों की बेदी पर पवित्रता को खरा उतार कर,
मैं चढ़ी तो हूँ उस प्रेमवेदी पर
पर अपना स्त्रीत्व बेचकर नहीं--!!

-नीरू श्रीवास्तव

3 comments:

  1. bahut sundar rachna likhi hai aapne ...hardik badhai sweekar karen . bloger ke duniyan me aapka swagat hai ..

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  2. bahut sundar rachna likhi hai aapne ...hardik badhai sweekar karen . bloger ke duniyan me aapka swagat hai ..

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