Friday, March 24, 2017

प्रेम की लौ

प्रेम की लौ
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विचलित तेरे अन्तःकरण में
जब पुरानी याद थी,
कैसे तेरे उर में समाई बात
मुझसे प्रेम की--!

धमनियाँ मंदिम में भी वो
ताप सा बढने लगा,
उन्माद सी जलने लगी
ज्वाला भी मुझमें प्रेम की--!

नस्तर से जो चुभने लगे
वो शूल मै चुनने लगी,
होने लगी विस्मृत मधुर
पीड़ा भी मुझमें प्रेम की--!

सहस्र दम भरने लगी थी
रात तारों से भरी
बेसुध सी सुस्त  चेतना
खोई थी मुझमें प्रेम की--!

विस्मित सी होकर प्रेम मै
जिस पर लुटाती फिर रही,
समाधि सी जलने ही दे वो
लौ तो मुझमें प्रेम की--!

नीरू"निराली"

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