Tuesday, August 16, 2016

सूखता जलस्तर

सूख रहा है जल स्तर मानव तेरे आडम्वर से,
तरस रही है प्यासी धरती जीव भरे कोलाहल से !!
 कुम्हलाई व्याकुल कुमुदनी मीन बिना मछुआरे है
सूखने लगी मन की वेदना ऑखों पर सूखे वादल है !!
प्रकृति को बना गुलाम किया खुद हमने अपना ही दोहन,
उपयोगिता की दौड़ में हम जल का जीवन ही हारे है !!
शोध किए धरती पर पहले खोखले दरख्त बना डाले,
पेङ हुए कंकाल तन्त्र से प्रकृति कुरूप पनिहारी सी!
भौतिकवाद में पड़कर हमने पृथ्व का ये हाल किया,
अभी तो धरती तड़प रही अब मानव तेरी बारी है !!
जल हीजीवन का संवल है इस सोच को अब साकार करो,
वृक्षारोपड़ करके अब तुम नवभारत का निमाण करो !!

-नीरू श्रीवास्तव 9a/8 विजय नगर कानपुर (यू.पी.) 

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